Title : एक दिन तू उस तरफ !

कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है.....

और फिर सभी की हूटिंग से पूरे मैदान में Wooooooo की आवाज़ और सीटियां गूँज उठी...
जी हाँ ये वही प्रसिद्ध रचना है

 
जो कुमार विश्वास के साथ वैसे ही लोकप्रिय है जैसे धोनी का last बॉल पे चौका मारके मैच  जिताना
पहली बार किसी कवि को लाइव सुनके और उसके प्रति लोगो का इतना प्रेम देखके ना जाने क्यों खुद से ये कह डाला 
"एक दिन तू उस तऱफ"

इस बात को रूम तक जाते जाते पिछले 3 सालों की तरह इस साल भी उसी मैदान में भूल आया था और आने वाले mid सेमेस्टर के exams के लिये सबने नोट्स इकठ्ठा करने शुरू कर दिए गए

दरहसल हर साल चेयरमैन सर् अपने जन्मदिन पर एक कवि सम्मेलन का आयोजन करते है साहित्य के प्रति इतना रूझान किसी कॉलेज के चेयरमैन का होना खुद में खास बात थी 
बाकी रही बात students की तो वो अपने अपने मतलब की चीज़ों को सुनने ब देखने ठीक शाम 7 बजे पंडाल में आकर बैठ जाते
जिनमे ज्यादार वो बुद्धिमान स्टूडेंट्स होते जो अच्छे नंबर लाकर cake cutting ceremony का इनविटेशन पाते थे और डिनर के लिये भी invited होते थे
पंडाल को खुशबूदार फूलो से सजाया जाता और तकरीबन 8 बजे mic कवियों को सौंप दिया जाता
अब जो लोग कविताओ में रूचि रखते है वे आगे से 5-6 लाइन घेर लेते और प्यार मौहब्बत की कविताएं सुनते
वही पीछे बैठे स्टूडेंट्स उन कविताओ से अपने मतलब के शब्द छाँटकर हूँ -हूँ हूँ । करते जो कि कवियों का हौसला ही बढ़ाता था
एक और खेमा होता जहाँ वो सभी स्टूडेंट्स बैठे होते जो इन कविताओं पे अमल कर रहे होते थे वो college की नमकीन जगह मानी जाती थी
यकीनन मैं सबसे आगे बैठा होता । क्योंकि कविताओ और साहित्य को करीब से सुनने का एकमात्र यही अबसर होता था
इसके बाद जब आखिरी कवि निपट जाता ।  सभी भूखे बैठे सज्जन खाने की तरफ राजधानी एक्सप्रेस की चाल से दौड़ पड़ते और चन मिनटो में दाल मखानी से लेकर रबड़ी तक सब नाप लेते

अगले दिन ऐसी कोई बात नही होती जिससे किसी को ये भी आभास हो कि कल एक कवि सम्मेलन भी था। सब अपने आने नोट्स print करवाते और लग जाते तैयारियो में

यकीनन मैं भी उन्ही में से एक होता लेकिन मैं वो स्टूडेंट था जिसके नोट्स से बाकी लोग फ़ोटो कॉपी करवाया करते थे ।
पढ़ाई में अपना हाथ अच्छा था कॉलेज में 2nd year में ब्रांच चेंज करने का option नही होता तो शायद मैं भी engineering को लेकर भारत के अनगिनत बच्चों की तरह रोता ।। लेकिन mechanical की बात ही कुछ अलग रहती है teachers आपसे लौंडो की तरह ही रहते जिससे आपकी लेक्चर में attendence से ज्यादा सीखने की tendency बढ़ जाती है

खैर exams खत्म होगये और placements भी धीरे धीरे शुरू होगयी लेकिन मेरे अंदर का writer अलग ही राजधानी एक्सप्रेस पकड़े हुए था
जिसे जहाँ मौका मिलता वही लिख बैठता
।।
कभी कॉलेज के वो भरे भरे गलियारों पर
तो कभी कैंटीन में घंटो बैठे यारो पर
कॉलेज में लगभग मात्र 10 लोग ही थे जो जानते थे कि मैं लिख भी लेता हूँ


और फिर एक company में हुए placement ने मेरे कम से कम अगले 1 साल का सफर तय करदिया जो रुका नही
Farewell हुई लेकिन मैकेनिकल में होने का एक फायदा ये भी होता है कि लड़कियां कम ही होती है तो विदाई वाला emotional अटैक नही पड़ता और सब एक दूसरे को स्वाद अनुसार गालिया देकर टच में रहने की बात करते है
और सब दूसरी ब्रांच वाली लड़कियों को या जिनकी gf होती उनको मिलते और सबसे नज़रे बचाके थोड़े आँसू छलका देते

Company का 9 तो 6 सफर शुरू होजाता है
अब लेखन से नाता किसी ट्रैन के प्लेटफार्म जैसा धीरे धीरे छूट रहा था

Company का सफर शुरू होगया और फर्स्ट सैलरी से लेकर आगे की सभी सैलरी का इंतज़ार करते करते दिन गुजर रहे थे
Life set सी लग रही थी लेकिन ये सब ही कुछ महीनों के भ्रम था क्योंकि नौकरी आपकी कितनी भी अच्छी हो आप उससे 8 10 महीने बाद ही ऊब जाते हो
यहाँ ऐसा कम था life का एक बड़ा हिस्सा किसी को याद करने में भी गुजर रहा था
वो सभी यादे जो कैंटीन में उसका हाथ पकड़के बनी थी वो याद वाला इंसान भी किसी प्राइवेट कंपनी में था और मुझसे ज्यादा खुश था farewell पे भी आख़िरी बार वाली मुलाक़ात जैसी चीज़ होती है वैसा कुछ नही हुआ था और हाथ मिलाकर एक दूसरे को अपने बड़े बड़े सपनो के दम पे छोड़ दिया

ऑफिस से रूम और रूम से आफिस की भाग दौड़ में सिर्फ थककर सोना ही सीख पाया
और यही अपना so called routine बन गया ..जॉब में मिल रहे प्रमोशन अच्छे लग रहे थे और ज्यादा कुछ पाने की जरूरत थी भी नही क्योंकि जितना कमाओ होता कम ही है
हर प्रमोशन में आप बस कपड़े खरीदने की दुकानें ही बदल पाते हो और मेरी ही नही सबकी ज़िंदगी यूँ ही चलती रहती है

तकरीबन 2 साल 3 महीने बाद

ऑफिस से थका हारा बैठा मैं अभी सोच ही रहा था कि आज खाने में क्या बनाया जाये और समझौता आलू के परांठे पर आके खत्म हुआ
गाने सुनते सुनते आटा कब मला जाता है पता ही नही चलता 
फोन पे एक unknown नंबर था

मैंने call back करी तो पता चला ये जूनियर का कॉल था 
सर् कहाँ हो मैं आ रहा हूँ 10मिनट में
दरहसल उसने आज alumini meet में जाने को बोला था जो मैं पूरी तरह से भूल गया था कि
जल्दी से मले हुए आटे को फ्रिज में रखा उबले आलू को कुकर में छोड़ा और कपड़े पहनने लगा 
खैर दिल मे आलू के पराँठे ना खाने का मलाल लिये मैं निकल गया उसके साथ
कॉलेज पहुँचने पर पता लग गया कि alumini meet दिन में थी और इस समय कवि सम्मेलन चल रहा है
उसे बहुत गुस्सा आया उसको उसके खबरी पर और मुझे उसपर 
कॉलेज में अपना समय याद करते हुए और वहाँ की सड़कों पर घूमते हुए आखिरकार वो बोला

कुछ नही से ये ही सही !
और इतना कहके पंडाल में घुस गए

"जो राज़ हो बता भी देना
हाथ जब उससे मिलाना तो दबा भी देना "

और woo woo का शोर सीटियां तालियाँ सब एक साथ बजं रही थी राहत इंदौरी जी अपनी full form में लग रहे थे और मैं ।।। 
मैं आज 3 साल बाद फिर वही सब महसूस करने लगा  वही नजारा वही लोग वही नमकीन जगह
वही कुछ कवियों की कविता के दीवाने तो कुछ अपने साथ आई कविता के दीवाने सीढ़ियों पे बैठे थे

^^तभी एक और शेर आया^^

"उसके बदन की लिखावट पे है उतार चढ़ाव बहुत "

बस इतना कहना था कि सब अपनी कुर्सियों से 3 3 इंच उछल गए । शायरी और कविता ये दोनों ही किसी को भी सब कुछ ना बताके भी सब समझाने की ताकत रखती है 
तालियों का शोर और लड़कों की हूटिंग से साफ पता लग रहा था कि वो अभी भी अपने दिमाग मे चित्रकारी कर रहे है

और मैं आगे से 5वी पंक्ति में मुस्कुराते हुए खुद के अंदर बैठे लेखक से बोल बैठा

*एक दिन तू उस तरफ*

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